मेरी गवाह
मुझे मालूम था पहले यही अंजाम है आगे ....
कि, राह-ए-इश्क में अक्सर मंजिल गुमराह होती है .....
तुझे पाना नहीं लिक्खा खुद ने दिल की किस्मत में .....
मगर फिर भी मेरे दिल को तेरी ही चाह होती है .....
काली रात भी पहले थी लगती चाँद-सी रोशन ....
अब तो रात की छोड़ो सुब्हें सियाह होती हैं .....
गुजरता हूँ तेरी गलियों से जब भी दीदार की खातिर .....
तेरी बातें, तेरी यादें मेरी हमराह होती हैं ......
सुकूं की है, दुआ करता उसी तारे से दिल मेरा .....
जो खुद टूटकर बिखरा है जिसमे आह!! होती है ....
ज़ेहन में कौंध जातीं हैं अचानक ही तेरी यादें ......
मेरे मायूस होने पर भी बे-परवाह होती हैं .....
सुना है, गौर से पढ़ते हो गज़लें तुम नवोदित की .....
चलो अच्छा है ! अब ये भी मेरी गवाह होती है ...........
-- आदित्य नवोदित --