Tuesday, May 26, 2015

सोच बदलो.. सब बदलेगा..

एक लडकी..सहूलियत के लिये कोई भी नाम रख लीजिये चलिये निकी नाम रख लेते है उम्र तकरीबन 12-14 साल स्कूल के लिये घर से निकलती है। पडोस के गुप्ता अंकल (उम्र 40-45 साल) अपने घर के बरामदे मे रिलैक्स चेयर पर बैठे हुये है। निकी ने “नमस्ते अंकल” कहा –जैसा कि बचपन से कहती आई है। गुप्ता अंकल ने भी संपूर्ण सह्रयदता से नमस्ते कहा और भावविह्वल होकर पास बुलाया। निकी खुश होकर दौडी और गुप्ता अंकल के पास पहुंची। जैसे कि बचपन से हमेशा आती थी। गुप्ता अंकल ने निकी को गोद मे बिठा लिया और बातें करनेलगे। निकी अभी खुश है। गुप्ता जी ने निकी के गालों को चूमा। निकी थोडी शरमाई और मुस्कुराई भी वैसे ही जैसे कि बचपन से हमेशा से मुस्कुराते आई है। गुप्ता अंकल ने एक हाथ उसके गाल पर रखा और दूसरा हाथ उसके सामने गले से नीचे की ओर..। गाल वाले हाथ का अंगूठा गालो पर धीरे-धीरे रेंग रहा था और दूसरे हाथ की हथेली भी बातों-बातों मे कभी-कभी गले से और नीचे की ओर सरक जाती थी। दो दफा निकी कुछ हद तक ठीक रही पर तीसरी बार निकी कसमसाने लगी। और जाने के लिये उठने लगी। पर ये क्या..?? गुप्ता अंकल ने अपने एक पैर से निकी के दोनो पैरों मे थोडा दवाब भी बना रखा था। अबकी निकी को थोडा जोर लगाना पडा उठने के लिये। जैसा कि बचपन से आज तक उसे कभी ऐसा नही करना पडा था। निकी को स्कूल जाने की जल्दी हो पडी। वो तेजी से गुप्ता अंकल के घर से बाहर निकल आई..। आज उसे रुमाल की जरूरत महसूस हुई माथे से पसीने की कुछ बूंदे पोछने के लिये..उसे थोडी पानी पीने की जरूरत भी महसूस हुई..पर उसे स्कूल पहुंचने की जल्दी थी।
खैर...शाम हुई..निकी घर आई। पर आज वो कुछ बाते भूल गई थी...लौटते वक्त उसने आज गुप्ता आंटी से नमस्ते नही किया था..जैसा कि आज से पहले बचपन से हमेशा करती आई थी। निकी पापा के साथ टीवी देख रही थी पर आज पापा की गोद मे बैठकर टीवी देखना भूल गई थी..जैसा कि आज से पहले हमेशा बैठकर देखा करती थी। आज निकी सोने से पहले अपने कमरे की बत्तियां बुझाना और खिडकियां खोले रखना भूल गई थी..जैसा कि बचपन से लेकर आज से पहले तक कभी नही भूली थी।
अगले दिन-
आज निकी स्कूल के लिये निकली रोज की तरह पर आज उसने गुप्ता अंकल से नमस्ते नही किया था जबकि गुप्ता अंकल आज भी अपने घर के बरामदे में रिलैक्स चेयर पर बैठे हुये थे..शायद निकी के ही “इंतेजार” मे...पर आज निकी भूल गई थी शायद..हालांकि बचपन से लेकर कल तक मे वो कभी नही भूली थी ये बात..। आज उसके शर्ट के बटन ऊपर तक बंद थे। आज उसने अपना स्कूल बैग पीठ मे टांगने की बजाय सामने सीने से लगाया हुआ था। जैसा कि बचपन से लेकर कल तक मे उसने कभी नही किया था। और हां आज उसने अपने एक हाथ मे रुमाल भी रखा हुआ था..पता नही क्यो..?? पर आज उसे ऐसा लग रहा था जैसे कि उसे कभी भी रुमाल की जरूरत पड सकती है..माथे से पसीने की कुछ बूंदे पोछने के लिये..।
इसके बाद भी हम और आप अगर ये कहें कि..जमाना बदल गया है।
तो गौर कीजियेगा..
जमाना उस दिन से बदलना शुरु होगा जब निकी को अपना स्कूल बैग पीठ की बजाय सीने से लगाकर चलने की जरूरत महसूस नही होगी। जमाना उस दिन से बदलना शुरु होगा जब निकी को रुमाल की जरूरत नही महसूस होगी माथे का पसीना पोछने के लिये और जब निकी को बेवजह जल्दी नही होगी स्कूल पहुंचने की।
और..
जमाना उस दिन वाकई बदल चुका होगा जब निकी को गुप्ता अंकल को नमस्ते कहना भूलने की जरूरत नही पडेगी..जब निकी न सिर्फ़ गुप्ता अंकल को नमस्ते कहेगी बल्कि गुप्ता अंकल के गालो को चूमने के बाद ही स्कूल जाया करेगी।
‪#‎सोच_बदलो_सब_बदलेगा‬

Sunday, June 2, 2013

इक यार मिला अनजाना सा ....

बचपन बीता जिन गलियों  में
जब बाहर  निकले उन गलियों से
बांगो में टहल रहे थे एक दिन
तब बांगों की प्यारी कलियों से
इक़ यार मिला अफसाना सा ....
इक यार मिला अनजाना सा ....

तन्हाई में खुश होकर भी
खुद में ही डूबी रहती जो
बर्फीले दिल वालों की
इस शमा सी जलती दुनिया में
इक यार मिला परवाना सा ....

इक़ यार मिला अफसाना सा ....
इक यार मिला अनजाना सा ....

लाख जतन करने पर मैंने
जब थोड़ी सी खुशियाँ पाई थी 
दिल तेज़ी से धड़का था 
पलकों पे नमी सी छाई थी 
गिरे नहीं आँखों से आंसू
आँखे भी तब पथराई थी 
जब ढूंढ रहे थे ऐसा कोई
जो हसता-रोता मेरे बदले  
तब चुपके से पीछे मेरे
इक यार मिला दीवाना सा

इक़ यार मिला अफसाना सा ....
इक यार मिला अनजाना सा ....

फुरसत के कुछ लम्हों में
जब यारों की महफ़िल जाती थी 
सोच-सोच पिछली बाते
बचपन की यादें जगती थी 
वो खेल अधूरा बचपन का 
पूरा करने का मन करता था 
जब फिर से बचपन जीने को 
बच्चो सा दिल ये मचला था 
तब पीछे से थपकी दे 
इक यार मिला बचकाना सा

इक़ यार मिला अफसाना ...
इक यार मिला अनजाना सा ....

अपने ही घर से निकले जो 
गुजरे अनजानी गलियों से 
जाने अनजाने चेहरो से 
भरी हुई इस दुनिया में 
जब सहमे-सहमे चलते थे 
डर-डर के आगे बढ़ते थे 
तब अलग भीड़ से दूर कही 
इक यार मिला पहचाना सा 

इक़ यार मिला अफसाना ...
इक यार मिला अनजाना सा ....

~ आदित्य नवोदित ~ 

Saturday, May 25, 2013

"अप्प दीपो भव":-

अप्प दीपो भव- एक निर्मल सन्देश,,मेरे विचार से सारे बौद्ध साहित्य का सारांश इन तीन शब्दों में पूर्ण हो जाता है l पर अफ़सोस किसी ने इस सन्देश का सही अर्थ नहीं समझा l बुद्ध ने कहा था कि- वो स्वयं कोई अद्वितीय नहीं है उनका कहना था, उनके पहले भी कई बुद्ध हुए है और उनके बाद भी कई बुद्ध होंगे l पर अफ़सोस ऐसा हुआ नहीं l बुद्ध के ये विचार बताते है कि उन्होंने कभी किसी अन्य का अनुसरण करने कि प्रेरणा कभी नहीं दी... उन्होंने हमेशा स्वयं को जानने के लिए प्रेरित किया l "अप्प दीपो भव"- अपना दीपक खुद बनो l ऐसा कहा था उन्होंने न कि किसी और के सहारे चलने के लिए अथवा किसी और का अनुगामी होने के लिए l बुद्ध ने स्वयं कहा था कि उनके बाद कोई भी उनके नाम का पृथक धर्म ना चलाये, पर भारत इतना संस्कारग्रस्त देश है कि यहाँ के लोग अद्वितीय होने के बजाय दुसरो के जैसा बनना ज्यादा आसान और उचित समझते है,और वास्तव में ये आसान है भी क्योकि दुसरो से लड़ना और जीतना संभव है पर खुद का खुद से संघर्ष करना और जीतना शायद असंभव कि श्रेणी में आता है l और बुद्ध ने यही सन्देश दिया कि स्वयं को जीते बगैर दुखों से मुक्ति असंभव है l अगर किसी ने उनके सन्देश को ठीक तरह से समझा होता तो आज बौद्ध (धर्म) नहीं कई बुद्ध होते l बुद्ध ने भी यही चाहा था वो बौद्ध धर्म नहीं कई बुद्ध चाहते थे ताकि उनके उद्देश्य (विश्व को दुःख और तृष्णा से मुक्त करने का ) की पूर्ति हो सके l अब ज़रा सोचिये जब एक बुद्ध ने समाज में इतना बदलाव लाया कि एक नरसंहारी व्यक्ति (सम्राट अशोक) उनसे प्रभावित होकर एक धर्मपुरुष हो गया,,,अगर उनके उपदेशों का यथोचित पालन होता तो आज समाज;देश और विश्व का नक्शा ही कुछ और होता l

Saturday, December 22, 2012

मेरी गवाह

मुझे मालूम था पहले यही अंजाम है आगे ....
कि, राह-ए-इश्क में अक्सर मंजिल गुमराह होती है .....

तुझे पाना नहीं लिक्खा खुद ने दिल की किस्मत में .....
मगर फिर भी मेरे दिल को तेरी ही चाह होती है .....

काली रात भी पहले थी लगती चाँद-सी रोशन ....
अब तो रात की छोड़ो सुब्हें सियाह होती हैं .....

गुजरता हूँ तेरी गलियों से जब भी दीदार की खातिर .....
तेरी बातें, तेरी यादें मेरी हमराह होती हैं ......

सुकूं की है, दुआ करता उसी तारे से दिल मेरा .....
जो खुद टूटकर बिखरा है जिसमे आह!! होती है ....

ज़ेहन में कौंध जातीं हैं अचानक ही तेरी यादें ......
मेरे मायूस होने पर भी बे-परवाह होती हैं .....

सुना है, गौर से पढ़ते हो गज़लें तुम नवोदित की ..... 
चलो अच्छा है ! अब ये भी मेरी गवाह होती है ...........
-- आदित्य नवोदित --




 

Monday, August 27, 2012

ना ही वो कुछ कहा, ना ही कहने दिया .....

ना ही वो कुछ कहा, ना ही कहने दिया .....

इश्क खुद ना किया, ना ही करने दिया ।
जाने क्यूँ बे-वज़ह,फिर ये दिल ले लिया।।
उसने चेहरा दिखाया  न, सच है, मगर।
ना वो छुप के रहा , ना ही पर्दा किया।।


इश्क खुद ना किया, ना ही करने दिया ।
जाने क्यूँ बे-वज़ह,फिर ये दिल ले लिया।।

जिस गली से चला था , इश्क का सिलसिला।
दूर था उस गली से , वो इक दिन मिला।.
दिल की बातें लबों पर , थी आयीं ,मगर।.
ना ही वो कुछ कहा ना ही कहने दिया।.


इश्क खुद ना किया, ना ही करने दिया ।
जाने क्यूँ बे-वज़ह,फिर ये दिल ले लिया।।


कुछ तो हम थे बुरे,वक़्त भी था बुरा।
वर्ना यूँ वो हंसी,हमसे ना रूठता।।
पा सकें ना उसे हम , ये गम है ,मगर।
वो खुद किसी को ना पाया ,ना ही पाने दिया।।


इश्क खुद ना किया, ना ही करने दिया ।
जाने क्यूँ बे-वज़ह,फिर ये दिल ले लिया।।


हुस्न उसका था कातिल ,थी आँखें नशीं।
चेहरा ऐसा था जैसे,नवोदित कली।।
जीना हमने भी चाहा था, हंस के, मगर ।
ना मैं हंस के जिया ,ना ही मरने दिया।।


इश्क खुद ना किया, ना ही करने दिया ।
जाने क्यूँ बे-वज़ह,फिर ये दिल ले लिया।।